बीस साल तक लखनऊ में एक अखबार ने ऐसा ही किया. लोगों को कविता के शक्ल में खबरें पढ़वाईं. बात है 1876 की जब नज़्म नाम का एक अखबार छपता था. वो हर खबर को नज़्म के रूप में लिखता था. पहले ये अखबार हैदराबाद से छपा, फिर लखनऊ आ गया.
उसमें छपी एक खबर जो कलकत्ता से पुलिस भर्ती से सम्बंधित थी उसको देखिये:
हुआ हैं हुकुम कलकत्ते से जारी,
शरीफों की है जिनसे पासदारी,
हुनरमंद शरीफ और खानदानी,
पुलिस में नौकरी करना जो चाहें,
खुली हैं उनकी बहबूदी की राहें.
ये एक कठिन काम होता था. पहले खबर इकठ्ठा करिए फिर उनको कविता के रूप में लिखिए.
मुंशी द्वारका प्रसाद नाम के एक व्यक्ति ने हैदराबाद में 1876 में नज़्म अखबार शुरू किया. धीरे धीरे यह अखबार सबको पसंद आने लगा. लेकिन उस वक़्त लखनऊ उर्दू शायरी का केंद्र था. इसीलिए मुंशी उसे लखनऊ ले आये और 1890-1895 तक ये अखबार लखनऊ से छपा. फिर बंद हो गया. शोधकर्ता बताते हैं कि लोग उनके अखबार और उनकी कविताओं के दीवाने से हो गए. इतने ज्यादा कि आपस में बातचीत भी कविता के रूप में करते थे और अखबार के प्रशंसक हो गए.
लगभग 125 साल के बाद एक युवक ने फिर उस अखबार की याद दिला दी है. यह युवक है अजय सिंह जो लखनऊ विश्वविद्यालय में इसी बात पर पीएचडी कर रहे हैं. उन्होंने नज़्म अखबार का अध्ययन किया और इस पूरी दास्तां को लोगों के सामने फिर जिंदा कर दिया. अफ़सोस ये रहा कि उस अखबार की कोई भी पूरी कॉपी अब सुरक्षित नहीं है. ओझल हो चुके अखबार के बारे में लोग फिर चर्चा कर रहे हैं.
लखनऊ विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के चेयरमैन प्रोफेसर डॉ ए आर नैयर इस रिसर्च की तारीफ करते हैं. उनके हिसाब से ये थीसिस दूसरे कई शोधार्थियों को नयी दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करेगी.