13 के फूल 17 की माला बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला,
दम है तो क्रॉस कर नहीं तो बर्दाश्त कर,
नीम का पेड़ किसी चन्दन से कम नहीं, हमारा लखनऊ किसी लंदन से कम नहीं,
कीचड़ में पैर रखोगी तो धोना पड़ेगा ड्राइवर से प्यार करोगी तो रोना पड़ेगा.
सुनने में ये तुकबंदी अटपटी लगे लेकिन हर कोई इनसे दो-चार होता रहता है. आमतौर पर ये लाइनें आपको सार्वजानिक टेम्पो, ई-रिक्शा और दूसरे पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाहनों पर लिखी हुई मिल जाती हैं. अब तो स्टीकर चिपके होते हैं जिनपर ये तुकबंदी की लाइन लिखी रहती हैं.
आमतौर पर हंसी आ जाती है ऐसी लाइनों को पढ़ कर. लेकिन कुछ ऐसी द्विअर्थी होती हैं कि पब्लिकली झेप भी होती हैं.
भारत के तहज़ीब के शहर, नवाबों की नगरी लखनऊ में ई-रिक्शा पर ऐसे ही तुकबंदी लिखी रहती है. लेकिन अब शायद इनसे दो-चार न होना पड़े, इतिहासकार अमरेश मिश्र ने लखनऊ में ई-रिक्शा पर मशहूर शायरों के शेर लिखने का बीड़ा उठाया हैं. अमरेश जिन्होंने फिल्म ‘बुलेट राजा’ की स्क्रिप्ट लिखी है और लखनऊ से सम्बन्ध रखते हैं, वो अब इन ई-रिक्शा पर मशहूर शायरों की पंक्तियां लिखवाने जा रहे हैं. शुरू में 1000 ई-रिक्शों पर ऐसे शेर लिखे जायेंगे.
अमरेश का मानना है की ऐसा करने से जनता कम से कम बहुत से ऐसे शायरों और उनके लिखे शेरों के बारे में जान जाएगी जो अब भुला दिए गये हैं. इससे लखनऊ की साहित्यिक पहचान भी लौटेगी और ख़ूबसूरती भी.
कहने में तो ये काम बहुत आसान लग रहा है लेकिन इसके लिए अमरेश और उनके साथियों को बहुत मेहनत करनी पड़ी. शायरों का चुनाव आसान नहीं था फिर उनके लिखे हुए शेर का चयन करना, इसी सब में काफी मेहनत लगी.
फिलहाल अमरेश मिश्र ने मशहूर शायर जावेद अख्तर के बाबा मुज़्तर खैराबादी, सकीब लखनवी, ज़रीफ़ लखनवी, रिंद लखनवी, सागर खैय्यामी, माचिस लखनवी जैसे शायर को चुना है. प्रगतिशील आन्दोलन के शायर अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, असग़र गोंडवी, फनी बदयुन्वी, फैज़, साहिर को भी शामिल किया हैं. हिंदी के प्रेमचंद, निराला, भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नागर को भी शामिल किया गया है.
अब लखनऊ में ई-रिक्शा पर आपको कुछ ऐसे शेर पढ़ने को मिल सकते हैं –
जिस पे दुनिया को फख्र है असलम, वो जुबान-ए-खास लखनऊ की है
या फिर हो सकता हैं आपकी नज़र पड़ जाये जहां लिखा हो -
आपके पांव के नीचे दिल हैं, एक ज़रा आपको ज़हमत होगी.
लखनऊ के इतिहास के जानकार और लखनऊ ऑब्जर्वर पत्रिका के संपादक शमीम आरजू के अनुसार ये एक अच्छी पहल है और इससे लोगों को शहर, उसके इतिहास, साहित्य और अपनेपन की पहचान होगी और कई भुला दिए गए शायर और उनके शेर फिर जिंदा हो जायेंगे.
शायद लखनऊ, जो कभी तहजीब और तमीज़ का केंद्र रहा है, जहां लोग लड़ाई भी जी जनाब से करते थे, जहां की भाषा इतनी मीठी थी, वो एक बार फिर आपको पढ़ने पर मिल जाये, या फिर कोई शेर ऐसा पसंद आये कि आप उसे नोट कर लें.